Saturday, October 13, 2012

'कुछ मीठा हो जाए...' : कहीं लत तो नहीं लग गयी आपको मिठास की?


हम सभी मिठास के शिकार होते हैं ज़िन्दगी में, कभी न कभी. केक हो या गुलाब-जामुन, भई कुछ मीठा ज़रूर होना चाहिए, हैं ना?
हमारे दैनिक जीवन-शैली में ये 'मिठास' की चाहत एक कमज़ोरी सी बनती जा रही है. आधुनिकीकरण ने हमें मेहनतकश बनने से रोक रखा है, और खाने की चाहत हमारी उतनी ही रह गयी है जितना कि एक मेहनतकश इंसान दिनभर की मजदूरी के बाद खाता है. नतीजा 'डाईटरी- इम्बैलेंस'. भोजन में शर्करा यानि कार्बोहाईड्रेट की अधिकता हमारे स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव डालती है. उधाहरण के तौर पर, अत्यधिक शर्करा सेवन:
१. सीधा प्रभाव करती है वसा (Fat) के तौर पर जमा होकर, जो कि ओवरवेट या मोटापे का मुख्य कारण है.
२. रक्त में ग्लूकोज़ की मात्रा सामान्य से बहुत ऊंचे स्तर पर रहती है, जिससे इंसुलिन का स्राव बढ़ता है और मधुमेह की स्थिति बनती है.
३. ग्लूकोज़ की ऊंची मात्रा मस्तिष्क को और अधिक शर्करा सेवन के लिए लालायित करती है, और ये कुचक्र चलता ही रहता है.

शोधकर्ताओं ने ये पाया है कि शर्करा के जो तत्व और ज्यादा खाने के लिए दिमाग में लालसा/craving बढाते हैं, उनकी तुलना मोर्फीन या हेरोइन जैसे लत से की जा सकती है. यानी कि आज के सन्दर्भ में 'मिठास' इच्छा से कहीं ऊपर, एक लत की संज्ञा लेती जा रही है.  एक ऐसी लत जो कोकेन जैसे ड्रग्स से भी ज्यादा प्रभावकारी है. शर्करा की इस लत का कारण 'लेप्टीन' नामक हार्मोन है जो मीठे चीज़ों के प्रति हमारा आकर्षण बढाता है. शर्करा जब वसा के तौर पर कोशिकाओं में जमा होती है, तो उसके साथ ही 'लेप्टीन' का रक्त में अत्यधिक स्राव होता है. और धीरे-धीरे हमारा तंत्र अत्यधिक लेप्टीन का आदि हो जाता है. नतीजा ये कि दिमाग को सिग्नल ही नहीं मिलता कि 'पेट भरा हुआ है और भूख नहीं लगी है'. हमेशा कुछ न कुछ खाने की इच्छा होती रहती है. और इस तरह ये कुचक्र हमारे तंत्र में स्थापित हो जाता है.
अब सवाल ये उठता है कि मिठास के इस लत से बचा कैसे जाए. क्योंकि अगर हमने ये लत छोड़ दी तो एक स्वास्थ्यकर जीवन जीने के उद्देश्य को हम आसानी से पा सकते हैं. लेकिन लत चाहे किसी भी चीज़ की हो- सिगरेट, शराब या ड्रग्स की, छोड़ना थोडा मुश्किल ज़रूर होता है. फिर भी कुछ मुख्य बिन्दुओं पर हम गौर कर सकते हैं:
१. लो-फैट और फैट फ्री को टा-टा: जिन प्रोसेस्ड फ़ूड में फैट की मात्रा कर की जाती है, उनमे अधिकांशतः शर्करा की मात्रा ज्यादा कर देते हैं. ऐसी चीज़ें हमें जितना लाभ नहीं देती, उससे ज्यादा हानि पहुंचती हैं.
२. एक्स्ट्रा मीठा- नो नो: प्राकृतिक तौर पर मीठी चीज़ें जैसे फल, डेट्स आदि सुपाच्य होते हैं और रक्त में ग्लूकोज़ की मात्रा नहीं बढाते. कृत्रिम शर्करा का सेवन (जैसे कि चौकलेट, मिठाइयाँ, केक, कूकीज, जिनमे बहुत अधिक मात्रा में शक्कर डालते हैं) कम-से-कम करना चाहिए.
३. व्यायाम और योगा: हल्का फुल्का व्यायाम न सिर्फ वसा को कम करने के लिए ज़रूरी है, बल्कि इससे रक्त में ग्लूकोज़ की मात्रा भी कम रहती है और शर्करा की लत धीरे-धीरे घटती है.
४. खाएं और बिलकुल खाएं: भोजन नियमित करें. पेट भरा होता है तो मिठास की Craving कम होती है. संतुलित आहार की आदत डाईटिंग जैसे नुस्खों से ज्यादा कारगर होता है, ये भी शोध में पाया गया है. कुछ मीठा खाने की इच्छा हो तो ड्राई-फ्रूट्स या मीठे फल खाएं.
 स्वस्थ जीवन जीना जितना आसान है उतना ही मुश्किल. अपने आहार के प्रति सदैव सचेत रहना अति-आवश्यक है. अगर मिठास की बहुत बुरी लत लगी हुई है तो ऐसा भी होता है कि कुछ विटामिन्स शरीर को उचित मात्रा में नहीं मिल पा रहे हैं. ऐसी स्थिति में संतुलित और नियमित आहार सर्वोत्तम है, न कि डाईटिंग!

नोट: लेखक मिशिगन यूनीवर्सिटी में परा-स्नातक शोधकर्ता हैं, और स्वास्थ्य एवं आरोग्यं के प्रति ये उनके निजी तथा समकालीन शोधकर्ताओं से उद्धृत विचार हैं.  
चित्र : गूगल से साभार 

Friday, June 1, 2012

क्या है आपकी प्लेट में: स्वास्थ्य vs Evolution



हम भले ही मानते रहें कि मनुष्यों की उत्पत्ति मनुस्मृति के अनुसार मनु से हुई हो.. या फिर Adam और Eve से हुई हो, पर सत्य तो यही है कि हम evolution से आये हैं.. सृष्टि पर जीवन का सृजन सूक्ष्म जैविक अणुवों से हुआ है (पूर्णतः physico-chemical कारणों से).. खैर इस विवाद न पड़कर फिलहाल थोड़े देर के लिए मान लेते हैं कि 'डार्विन' ने जो देखा-समझा सही था, तो एक बात ये आती है कि लगभग सभी जीवों का आधार जल है- मनुष्य का शरीर भी ७० प्रतिशत जल है. और इस तथ्य का सीधा सम्बन्ध हमारे खाने-पीने के तरीकों से जुड़ा है. पृथ्वी भी ७० प्रतिशत जल है.. evolution से जोड़कर देखें तो हमारा भोजन भी कुछ ऐसा ही होना चाहिए.. ७० प्रतिशत जल/क्षार आधारित कच्चा भोजन और सिर्फ ३० प्रतिशत गरिष्ठ भोजन (जिसमें शामिल हैं प्रोटीन, कार्ब और वसा/fat). जबकि हम करते बिलकुल उल्टा हैं.. हमारी प्लेट का अधिकाँश हिस्सा भरा होता है इन्ही गरिष्ठ तत्वों से. इसका सीधा प्रभाव पड़ता है dietary imbalance पे, और नतीजतन मोटापा, डायबीटीज़ और कैंसर जैसी बीमारियाँ आम बात हो गयी हैं..

अब प्रश्न ये उठता है कि 'समाधान क्या है?' 

१. मात्रा: भोजन में कच्चे अवयवों की मात्र बढ़ाएं (जैसे salads , शाक (साग), कच्ची सब्जियां)
२. रंग: लाल-पीले-हरे यानि कि रंग वाले शाक-सब्जियों और फलों का सेवन  ज्यादा से ज्यादा करें.. (अर्थात, आम, चुकुन्दर, पपीता, पालक इत्यादि)
३. Good oil : वो तेल जिनमे ओमेगा ३ फैटी-एसिड की मात्रा पर्याप्त हो (जैसे: Flaxseed oil , olive oil , सरसों तेल में भी ओमेगा ३ की अच्छी मात्रा होती है)...
४.  Say no : भोजन में processed foods, transfat में बने भोजन, फास्ट-फ़ूड इत्यादि की मात्रा कम से कम रखें.
५. 3 S मंत्र: Sugar Salt and Sleep : कम से कम extra sugar, salt और पर्याप्त निद्रा- कहा जाता है कि 3S मंत्र को नियमित रखने वालों को बहुत कम ज़रुरत पड़ती है doctors की.

 
Shortcut में बात बस इतनी सी है, कि कच्चा खायी जानेवाली चीज़ों को diet  में ज्यादा से ज्यादा शामिल करें, और processed food को- टाटा बाय बाय.. :)
और फिर चमकिये, झमकिये, खूब मौज-मस्ती कीजिये.. आखिर यही तो है.. ज़िन्दगी :) :)

Picture Courtesy: http://www.causematters.com/wp-content/uploads/eatwellplatelarge.jpg

Sunday, March 25, 2012

ज़रूरी है combinations समझना

अगर कोई क्रिकेट खेलने मैदान में उतरे, और आप उसे टेबल-टेनिस की बैट थमा दें, तो बेचारा १ रन भी न बना पाए.
वैसे ही क्रिकेट के बल्ले से कोई टेनिस नहीं खेल सकता. चीज़ों का यथोचित combination बहुत ही आवश्यक होता है.
ये नियम सुलभ स्वस्थ्य के लिए भी लागू होते हैं. कई बार दादी-नानी से सुना होगा आपने कि 'फलां' खाके 'फलां' नहीं खाते, 'फलां' नहीं पीते. सदियों के अनुभव से जुड़ी हैं हमारी दादी-नानियों की ये बातें, जो आजकल की दौर में हम नज़र-अंदाज़ करते जा रहे हैं.

सबसे पहले मैं एक उदाहरण अपने आयुर्वेद से ही लेता हूँ:

सिंधूत्शर्कराशुण्ठीकणामधुगुडै: क्रमात ।
वर्षादिष्वभयाभ्यस्ता रसायन गुणैषिणा ।। (योगरत्नाकर: ४९९)

हरीतकी/हर्रे को आयुर्वेद में माँ का दर्ज़ा दिया गया है, जो शरीर की दुर्बलता नष्ट करके दीर्घायु प्रदान करती है. परन्तु हरीतकी को भी विशेष combinations के साथ लेनेका सुझाव बताया गया है, जो इस प्रकार है:
१) वर्षा ऋतु में 'सैन्धव' नमक के साथ
२) हेमंत ऋतु में 'शक्कर' के साथ
३) शरद ऋतु (पूर्वार्ध) में अदरक के साथ
४) शरद ऋतु (शेषार्ध) में पिप्पली/ पेप्पर के साथ (जो सोंठ के साथ अक्सर आचारों में डाला जाता हैं)
५) वसंत ऋतु में मधु के साथ
६) ग्रीष्म ऋतु में गुड़/मिट्ठे के साथ

 ये तो हुआ एक उदाहरण. अब ज़रा अपनी वैज्ञानिक दृष्टि डाली जाए. एक बात तो तय है कि विभिन्न ऋतुओं में बाह्य तापमान और आद्रता के साथ शरीर को समन्वय बिठाना पड़ता है.

जाड़े में शरीर को अंदरूनी गर्मी की ज़रुरत होती है, अतः glucose और fat metabolism तेज़ होता है. ऐसे में खाने में gluocose तथा fat से परिपूर्ण चीज़ों का प्रयोग करना चाहिए. इसीलिए कहते हैं की जाड़े में मेवे-मिष्टान्न, dry fruits इत्यादि छक कर खाना चाहिए. इसी लिस्ट में गोंद तथा तिल भी आते हैं मगर इनका combination होना चाहिए मधु या गुड़ के साथ. मकर संक्रांति में तिल के लड्डू (गुड़ के पार वाले) खाने का विधान है. इसका मतलब ये नहीं कि १४ जनवरी को खाया और हो गया. ये तो बस सबब है याद रखने का ताकि लोग तिल-गोंद-गुड़ इत्यादि का सेवन अधिक से अधिक इस ऋतु में कर सकें.
इसके विपरीत, गर्मी के समय में ये metabolism बहुत धीमी पड़ जाती है. ऊपर से स्वेद/पसीने के कारण काफी लवणों का क्षय भी होता है शरीर में. सैन्धव तथा काले नमक में दर्जनों किस्म के लावन मौजूद होते हैं जो शरीर के metabolism को सुचारू रूप से चलने में मदद करते हैं. ग्रीष्म ऋतु में गरिष्ठ भोजन (अत्यधिक मात्र में मेवे मिष्टान्न, dry-fruits इत्यादि) पाचन तंत्र के लिए हानिकारक है.

आशा है ये जानकारी लाभकारी सिद्ध हो सभी के लिए!

Thursday, February 9, 2012

Trans-fats : बच के रहना रे बाबा!


कई दिनों से इच्छा हो रही थी 'आरोग्यं' शुरू करूँ. वैसे भी मेरे अनुसंधान के करियर में एक Med School  में काम करना मुझे एक नया आयाम देता जा रहा है! बहुत कुछ नया मिला है सीखने को. और निश्चित ही २-३ महीने बाद आरोग्यं पर नियमित लिखा करूँगा! 
फिलहाल तो एक जानकारी 'trans -fat ' के बारे में-
 'trans -fat ' प्राकृतिक रूप में बहुत कम ही पाया जाता है, दूध में कुल fat का १-४ प्रतिशत ही 'trans -fat ' होता है. पौधों से प्राप्त वसा में इसकी मात्रा लेष भर भी नहीं होती. परन्तु जब प्राकृतिक वसा industry में processing की जाती है, तब कुल वसा में 'trans -fat ' की मात्रा ४५ % तक हो सकती है. ऐसे 'तेल' का प्रयोग ही ज़्यादातर 'fast -food ' वाले रेस्तरां में हुआ करता है, कारण ये है की 'trans -fat ' deep -frying के लिए उपयुक्त होता है, एक ही कढ़ाई में बार बार एक ही तेल का प्रयोग करने से भी इसमें बदबू नहीं आती, बहुत टिकाऊ होता है, जल्दी ख़राब नहीं होता! 
ये तो हुआ गुणों का बखान!
अब बचना क्यूँ है इससे फिर? 
कारण ये है कि 'trans -fat ' शरीर द्वारा पचाया नहीं जा सकता है. अतः ये रक्त-नलियों में जमा होने लगता है, और इसके अलावा 'adipose -tissue ' में भी (वसा संरक्षित करने वाली कोशिकाएं). 

 'trans -fat ' का कैंसर में बहुत असर पाया गया है शोधों में. ह्रदय-रोग का भण्डार लेकर आता है ये 'trans -fat ', साथ ही सहायक होता है मधुमेह में, मोटापे में, यहाँ तक भी मनोरोगों में भी! पूरी लिस्ट लिखूं तो पन्ना भर जाय, बस यूँ समझ लीजिये, कि कम या न के बराबर सेवन किया जाय तो हो ठीक है.
सेवन करना ही है तो plant fats का सीधा प्रयोग करें, processed  hydrogenated तेलों का प्रयोग न के बराबर ही करें. Olive oil , सरसों तेल, मूंगफली का तेल, ये सब अच्छे माने गए हैं. और हाँ, faast food से दूर रखें, खुद को भी, और बच्चों को भी!
तो फिर McDonald  का बर्गर और 'french -fries ' या फिर KFC की 'Chicken -nuggets ' जो कि 'trans -fat ' से लबालब होते हैं, उन्हें खाया जाना चाहिए या नहीं, ये निर्णय मैं आप पर छोड़ता हूँ!

Picture Courtesy: http://www.bantransfats.com/